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जलियांवाला बाग हत्याकांड- शहादत की अजीब दास्तां (Jallianwala Bagh Massacre Anniversary)

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स्वतंत्र महौल में जीने की आदत ने हमें हमारी ही ऐतिहासिक घटनाओं से दूर कर दिया है. जिस तरह से आज हम जीवन जी रहे हैं, कभी सोच भी नहीं सकते कि उसके लिए हमारे अपनों ने अपने जान की बाज़ी लगा दी थी. उनका हर एक संघर्ष आज की हमारी ज़िंदगी का गवाह है. उन्होंने हमारे आज को संवारने के लिए अपना कल कुर्बान कर दिया. ऐसी ही एक घटना है जलियांवाला बाग हत्याकांड. 13 अप्रैल 1919 में बैसाखी के दिन ही अमृतसर में अंग्रेज़ी हुकूमत का एक सिरफिरा ऑफिसर जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में मासूम और निहत्थे लोगों पर बरबरता पूर्वक गोलियां चलवा दीं. इस घटना में सभी लोगों की मृत्यु हो गई.जलियांवाला बाग में महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, नौजवान समेत हज़ारों की संख्या में लोग मौजूद थे. जनरल डायर ने बाग से निकलनेवाले एकमात्र गेट को बंद करवा दिया था और एक छोर से गोलियां चलाने का ऑर्डर दे दिया था. लोगों के बीच अफरा-तफरी मच गई. कितने लोगों ने बाग के बीच में मौजूद कुएं में कूदकर जान दे दी, तो कितने गोलियों का शिकार हो गए.आज भी अमृतसर में जब जलियांवाला बाग में देखने जाते हैं, तो दीवारों पर गोलियों के निशान को साफ़ देखा जा सकता है. अब तो उस बाग को काफ़ी बेहतर तरी़के से बना दिया गया है, लेकिन वहां जाने के बाद वो घटना बरबस ही आंखों के सामने घूमने लगती है और मन में उन मासूम लोगों के लिए सम्मान का भाव अपने आप आ जाता है. उनकी शहादत के ये निशां एहसास दिलाते हैं कि जैसे ये कल की ही बात हो.

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