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ऋतु चर्या ( Seasonal Lifestyle According To Ayurveda In Hindi)
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ऋतु चर्या का अर्थ है ऋतु के अनुसार ही पथ्यापथ्य का सेवन करना अथवा ऋतु के अनुसार ही चेष्टा और जीवनचर्या का पालन करना. पूर्ण वर्ष को आयुर्वेद में २ काल में विभक्त किया गया है- आदान काल और विसर्ग काल. आदान काल में पृथ्वी का उत्तरी छोर (north pole) सूर्य की तरफ झुक जाता है. पृथ्वी की इस क्रिया के कारण धरती पर सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है. इस कारण इसे उत्तरायण (आयन अर्थात गति) भी कहा जाता है. आदान का अर्थ है ‘ले लेना’. ये वह काल है जिसमें सूर्य एवं वायु अपने चरम पर आते हैं. इस काल में सूर्य पृथ्वी की सब उर्जा और ठंडक ले लेता है. अतः इस समय में शरीर में कमज़ोरी आने लगती है. दूसरा काल है विसर्ग काल जिसमे पृथ्वी का दक्षिण छोर सूर्य की ओर मुखरित होता है. इस लिए सूर्य की गति दक्षिण की ओर होती है. इसलिए ये दक्षिणायन भी कहा जाता है. इसे विसर्ग काल कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘प्रदान करना’. इस काल में सूर्य धरती को उर्जा प्रदान करता है.
विसर्ग काल में चंद्र प्रधान होता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो यह संपूर्ण धरा पर नियंत्रण किए हुए हैं. सब वनस्पति और प्राणियों को चंद्र पोषण प्रदान करता है. धरती को मेघ, वर्षा और पवन के कारण ठंडक मिलती है. एक वर्ष में दो आयन होते हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन एवं इनके कारण वर्ष में ६ ऋतु होती हैं और हर काल में ३ ऋतु होती है. आदान काल में- शिशिर, वसंत और ग्रीष्म जबकि विसर्ग काल में वर्षा, शरत और हेमंत. हर ऋतु दो माह की अवधि लिए हुए है.

विसर्ग काल में चंद्र प्रधान होता है. ऐसा प्रतीत होता है मानो यह संपूर्ण धरा पर नियंत्रण किए हुए हैं. सब वनस्पति और प्राणियों को चंद्र पोषण प्रदान करता है. धरती को मेघ, वर्षा और पवन के कारण ठंडक मिलती है. एक वर्ष में दो आयन होते हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन एवं इनके कारण वर्ष में ६ ऋतु होती हैं और हर काल में ३ ऋतु होती है. आदान काल में- शिशिर, वसंत और ग्रीष्म जबकि विसर्ग काल में वर्षा, शरत और हेमंत. हर ऋतु दो माह की अवधि लिए हुए है.
| आदान काल (उत्तरायण) | शिशिर | माघ, फाल्गुन | 15 जनवरी-15 मार्च | ठंडी एवं ओसपूर्ण ऋतु |
| वसंत | चैत्र, वैसाख | 15 मार्च- 15 मई | वसंत | |
| ग्रीष्म | ज्येष्ठ, आषाढ़ | 15 मई- 15 जुलाई | ग्रीष्म/गर्मी | |
| विसर्ग काल (दक्षिणायन) | वर्षा | श्रावण, भद्रपद | 15 जुलाई- 15 सितंबर | सावन/वर्षा |
| शरत | आश्विन, कार्तिक | 15 सितंबर- 15 नवंबर | शरद / पतझड़ | |
| हेमंत | मार्गशीर्ष, पौष | 15 नवंबर – 15 जनवरी | शीत/ सर्दी |
आयुर्वेद में शॅडरस (six tastes) का वर्णन है- तिक्त (bitter) , कशाय (astringent), कटु (pungent), आम्ल (sour), लवन (salt), मधु (sweet).
हर ऋतु का एक प्रधान रस होता है. जिस ऋतु का जो प्रधान रस है, उसी रस के पदार्थों का अधिक सेवन उस ऋतु में करना स्वास्थ्य के लिए हितकर है.
हर ऋतु का एक प्रधान रस होता है. जिस ऋतु का जो प्रधान रस है, उसी रस के पदार्थों का अधिक सेवन उस ऋतु में करना स्वास्थ्य के लिए हितकर है.| शिशिर | माघ, फाल्गुन | 15 जनवरी-15 मार्च | ठंडी एवं ओसपूर्ण ऋतु | तिक्त (bitter) |
| वसंत | चैत्र, वैसाख | 15 मार्च- 15 मई | वसंत | कशाय (astringent) |
| ग्रीष्म | ज्येष्ठ, आषाढ़ | 15 मई- 15 जुलाई | ग्रीष्म/गर्मी | कटु (pungent) |
| वर्षा | श्रावण, भद्रपद | 15 जुलाई- 15 सितंबर | सावन/वर्षा | आम्ल (sour) |
| शरत | आश्विन, कार्तिक | 15 सितंबर- 15 नवंबर | शरद / पतझड़ | लवन (salt) |
| हेमंत | मार्गशीर्ष, पौष | 15 नवंबर – 15 जनवरी | शीत/ सर्दी | मधु (sweet) |
ऋतु एवं तीन दोष (6 Seasons and Doshas In Ayurveda Hindi)
वात दोष : ग्रीष्म ऋतु में एकत्रित होता है जब शोषण करने वाली गर्मी में पाई जाती है और वर्षा ऋतु के काल में यह पाचन क्रिया को कमज़ोर कर देती है. वातावरण में भी अम्लीय और वातज प्रकोप देखने को मिलता है जब सूखी धरती पर बारिश पड़ने से फँसी हुई वायु धरती से निकलती है तथा धरती की सतह को अम्लीय बना देती हैं.
पित्त दोष: पित्त दोष वर्षा ऋतु में एकत्रित हो जाता है तथा शरत ऋतु के अम्लीय वातावरण में इसका प्रकोप पाचन क्रिया में आई कमज़ोरी के रूप में सामने आता है. यह वर्षा ऋतु के बाद गर्मी के पुनः प्रकट होने पर शरीर में बढ़ कर विकृति पैदा करता है.
कफ दोष: शीत ऋतु में शरीर में एकत्रित होती है जब ठंडक और नमी दोनो वातावरण में पवन, मेघ एवं वर्षा के कारण अधिक मात्रा में हो जाते हैं. यह शरीर में ग्रीष्म ऋतु में बढ़ जाता है जब गर्मी के कारण यह पिघलने लगता है.
पित्त दोष: पित्त दोष वर्षा ऋतु में एकत्रित हो जाता है तथा शरत ऋतु के अम्लीय वातावरण में इसका प्रकोप पाचन क्रिया में आई कमज़ोरी के रूप में सामने आता है. यह वर्षा ऋतु के बाद गर्मी के पुनः प्रकट होने पर शरीर में बढ़ कर विकृति पैदा करता है.
कफ दोष: शीत ऋतु में शरीर में एकत्रित होती है जब ठंडक और नमी दोनो वातावरण में पवन, मेघ एवं वर्षा के कारण अधिक मात्रा में हो जाते हैं. यह शरीर में ग्रीष्म ऋतु में बढ़ जाता है जब गर्मी के कारण यह पिघलने लगता है.
६ ऋतु और उनमें पथ्यापथ्य एवं जीवनचर्या ( 6 Seasons And Diet/ Lifestyle In Ayurveda In Hindi)
शिशिर/हेमंत ऋतु
पथ्यापथ्य: मीठे, खट्टे और लवन युक्त पदार्थ लेना इस ऋतु में हितकर है. हेमंत ऋतु में पाचन क्रिया प्रखर हो जाती है. बढ़ा हुआ वात ठंड के कारण अवरोधित हो जाता है और यह शरीर में धातुयों का नाश कर सकता है. अधिक मीठे, अम्लीय और तिक्त पदार्थों का सेवन हितकर है. गेहूँ, बेसन, दूध से बने पदार्थ, गन्ने के रस से बने पदार्थ, मकाई, खाद्य तेल का सेवन इस ऋतु में हितकर है.
पथ्यापथ्य: मीठे, खट्टे और लवन युक्त पदार्थ लेना इस ऋतु में हितकर है. हेमंत ऋतु में पाचन क्रिया प्रखर हो जाती है. बढ़ा हुआ वात ठंड के कारण अवरोधित हो जाता है और यह शरीर में धातुयों का नाश कर सकता है. अधिक मीठे, अम्लीय और तिक्त पदार्थों का सेवन हितकर है. गेहूँ, बेसन, दूध से बने पदार्थ, गन्ने के रस से बने पदार्थ, मकाई, खाद्य तेल का सेवन इस ऋतु में हितकर है.
जीवनचर्या: तेल द्वारा की गयी मालिश, केसर, कुमकुम अथवा बेसन से बना उब्वर्तन का प्रयोग करना, नियमित हल्का व्यायाम, नीत्यप्रति धूप का सेवन हितकारी है. चर्म, रेशम और ऊन से बने कपड़ों को पहनना इस ऋतु में उचित है.
वसंत ऋतु
इस ऋतु में सूर्य की तीक्ष्णता बढ़ने से कफ पिघलने लगता है जिस कारण शरीर की अग्नि ख़ास तौर पर जठराग्नि मंद पड़ जाती है.
पथ्यापथ्य: जौ, शहद, आम का रस लेना इस ऋतु में हितकर है. किण्वित आसव, अरिस्ट अथवा काढ़ा या फिर गन्ने का रस लेना इस ऋतु में लाभकारी है. मुश्किल से पचने वाले ठोस , ठंडे, मीठे, अम्लीय, वसायुक्त, पदार्थ नही लेने चाहिए.
पथ्यापथ्य: जौ, शहद, आम का रस लेना इस ऋतु में हितकर है. किण्वित आसव, अरिस्ट अथवा काढ़ा या फिर गन्ने का रस लेना इस ऋतु में लाभकारी है. मुश्किल से पचने वाले ठोस , ठंडे, मीठे, अम्लीय, वसायुक्त, पदार्थ नही लेने चाहिए.
जीवनचर्या: व्यायाम, सुखी घर्षण वाली मालिश, नास्य, मालिश के बाद कपूर, चंदन और कुमकुम-युक्त पानी से स्नान, इस ऋतु में करने योग्य है. इस ऋतु में दिन में अतिरिक्त स्नान नही करना चाहिए.
ग्रीष्म ऋतु
इस ऋतु में सूर्य की किरणों की तीक्ष्णता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है. कफ में कमी आ जाती है तथा वात लगातार बढ़ता है.
पथ्यापथ्य: मीठे, हल्के और तरल पदार्थ लेना हितकर है. ठंडे पानी का सेवन गर्मी के समय हितकारी है. ठंडाई और पानक पंचकर जो पाँच प्रकार के मधुर पदार्थों से बना है, इनका सेवन करना चाहिए. शराब का सेवन इस ऋतु में निषिद्ध है क्योंकि इससे शरीर में कमज़ोरी और जलन उत्पन्न होती है.
जीवनचर्या: शरीर को चंदन का लेप लगाकर स्नान करने से इस ऋतु में लाभ मिलता है. ठंडी जगह पर वास करना उचित है तथा हल्के वस्त्र धारण करना उपयुक्त रहता है.
वर्षा ऋतु
इस ऋतु में पाचन शक्ति और भी क्षीण हो जाती है. सब दोषों की विकृति के कारण पाचन क्रिया की कमज़ोरी अधिक बढ़ जाती है. इसलिए जठराग्नि को प्रदीप्त करना तथा दोषों का शमन करना आयुर्वेद में सर्वथा महत्वपूर्ण है.
पथ्यापथ्य: जठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए आसानी से पचने वाले आहार का सेवन करना चाहिए. दालें, सब्जियों का सूप, पुराना अन्न, पतला दही इस ऋतु में लिया जा सकता है.
पथ्यापथ्य: जठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए आसानी से पचने वाले आहार का सेवन करना चाहिए. दालें, सब्जियों का सूप, पुराना अन्न, पतला दही इस ऋतु में लिया जा सकता है.
जीवनचर्या: पंचकर्म की शुद्धि क्रियाएँ, सुगंधियों का प्रयोग भी इस ऋतु में करने योग्य है. दिन में सोना, अत्यधिक थकान और धूप में घूमना इस ऋतु में वर्जित कार्य हैं.
शरत ऋतु
वर्षा ऋतु में पित्त का सन्चय शरीर में होता है. भोजन में तिक्त, मधुर, कशाय पदारतों का सेवन करना हितकर है.
पथ्यापथ्य: आसानी से पचने वाले भोजन जैसे चावल, हरा चना, आमला, शहद, शर्करा का सेवन हितकर है. भारी, गरिष्ट भोजन का सेवन, दही, तेल और शराब का सेवन इस ऋतु में वर्जित है.
पथ्यापथ्य: आसानी से पचने वाले भोजन जैसे चावल, हरा चना, आमला, शहद, शर्करा का सेवन हितकर है. भारी, गरिष्ट भोजन का सेवन, दही, तेल और शराब का सेवन इस ऋतु में वर्जित है.
जीवनचर्या: चंदन के साथ उद्वर्तन, गर्म पानी से स्नान और मोती से बनी आभूषण प्रयोग करना इस ऋतु में सार्थक है.
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